
हटरी म पहुंच के पड़ोसन काकी ल पूछेंव- काकी साग मन का भाव हावय। भाव ल सुनते मोर गौंटिया होय के सपना टूटगें। काकी ल कहेंव - भाव कमती नइ करस वो। काकी कथे - चुनई अवइया हे बाबू भाव कमती नई होवय अउ बाड़ही। मेहा सोचेंव ये बाढ़हे महंगाई ह मोला फेर गरीब बना दीही तइसे लागथे। साग-पान लेवई ल छोड़ काकी करा ले टरकगेंव।
रामप्रसाद भइया के टूरा ह अपन लंगोटिया मितान संग फटफटी म अइठके अेती-वोती, ओलकी-कोलकी घुमत राहय। रद्दा म विही मन ल अमरा परेंव। वोमन ल रोकवा के कहेंव - अइसने म कइसे बनही रामलाल। महंगाई ल देख मच्छर कस दुरगति करत हावे। तेहां बिना काम-बुता के जबरतत्रन फटफटी कुदई ल बंद करबे तभे तो महंगाई कम होही का? हमन ल देख तो महंगाई ल कमती करे बर साग-पान ल छोड़ के नून म परवार के गुजारा होत हे। अतके भर कहे रहेंव रामलाल ह मोर मुंहु ल बंद करत सोझ्झे कथे - तभे तो गरीब बनबो का ? मेहा कुछु नइ कहि सकेंव अउ अपन रद्दा रेंगेंव।
मनखे मन के बेइज्जती करइया नेता मन भुलागे हावय। परमात्मा के लउठी म भले चिन्हा नइ आवय, फेर असर सिरतोन मे करथे। गरीब कोन हावय अवइया चुनई म पता चल जाही।
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