मोर कहां गंवागे गांव (Mor kaha gwage gaw)

मोर कहां गंवागे गांव’’ छत्तीसगढ़ी गीत के संस्कार म पले, मनमोहनी परकीरीति के सुसमा म बाढ़े कवि डाॅ. रमाकांत सोनी के गुरतुर किरतिय आय। जेन अदारस, सरलता, अंतस के परेम, मरजाद, मितानी अउ मिहनत के मोंगरा ले गांव महमहावय तेन महमही ह कहां गंवागे के कहके कवि पुछत हे। फेर कहिथे के मोर वोइ गंवाए गांव ल पा जाहा, तब अमरा दिहा। ए पोथी के सिरसक ह आदमी मन ल चेत करवइया हे। ए संगरह मं तीन कोरी केरा मां सक्कर पागे कस कविता हावय। जेन भाव पक्छ ले कवि के काव्य-साधना के देन आय। डाॅ0 सोनी ह ए संगरह के माध्यम ले छत्तीसगढ़ी ल भासायी उरजा परदान करे हे। रचना मन म छंद, अलंकार के सुघ्घर तालमेल हावय। अलंकार ह कविता के सिंगार आय, फेर कविता के आत्मा तो वोकर रस हे। भाखा वोकर वानी अउ छंद वोकर अनुशासन ए। कवि ह एमन ल अपन रचना म बने धियान दे हे। संगरह के सीरसक गीत म कवि अपन सरल अउ भावपूरन्न भासा म संस्कीरीति अउ परम्परा ले हटत अउ जरी ले कटत मनखे मन सो पूछत हे - 
मोर कहां गंवागे गांव रे, 
मैं खोजत हाववं, मोर पीपर पेड़ के छाव रे,
मैं खोजत हाववं। 
संगरह के गीत ल पढ़े के बाद म गीत मन अंतस मं गुंजे लागथे। कई ठन गीत ते मन ल झकझारे देथे। हमर आजादी ल तीन कोरी बच्छर पूरगे हे तब ले रइ-रइ के ये परस्सन उठथे के - 
ये देस हमर अय का, 
मै खोजत रथवं बइहा।
ये राज हमर अय का
मै गुनत रथवं बइहा।
परदूसन ह खाली पानी-माटी अउ हवा भर म नइये। ऐहा हमर संस्कार अउ मनखे मन के चेतना घलो ल बाइ कस मार दे हे। थोकन ये लाइन ल देखव-
सब सहर के जहर ह, एही डहर मं आवत हावय।
अब गावं के गंगा के पानी, घलो सुखावत हावय।
कोन भागीरथी ला पांव रे, मैं खोजत हाववं।

विद्याभूषण मिश्र
जांजगीर, छत्तीसगढ़

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